तो शरद बनेंगे जदयू अध्यक्ष और नीतीश होंगे घरबदर
नवल किशोर कुमार की रिपोर्ट
बिहार की राजनीति बड़ी तेजी से करवट बदल रही है। 26 जुलाई को चट मंगनी पट विवाह के तर्ज पर पहले इस्तीफा और तुरंत भाजपा के साथ मिलकर छठी बार सरकार बनाने वाले नीतीश कुमार को उनकी ही चाल उलटी पड सकती है। वजह जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं। दिल्ली के राजनीतिक पंडितों बीच दो विंदुओं पर चर्चा चल रही है। पहला यह कि क्या नीतीश शरद को अपनी पार्टी से बाहर करेंगे? दूसरा, यह कि क्या शरद लालू प्रसाद के साथ जाएंगे, या फिर ढलती उम्र में अपना कोई अलग राजनीतिक संगठन खडा करेंगे। इन चर्चाओं से निस्पृह बिहार के राजनीतिक गलियारों में एक दूसरी ही चर्चा है। कहा जा रहा है कि शरद यादव ही नीतीश कुमार को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देने में सक्षम हैं। दरअसल, बिहार में तो जदयू पर कमोबेश नीतीश कुमार का ही कब्जा है, लेकिन पार्टी सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं है। देश के 12 राज्यों में पार्टी का ढांचा है। हाल ही में गुजरात में हुए राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की जीत में जदयू के विधायक छोटू भाई वासवा की अहम भूमिका रही। बिहार के अतिरिक्त अन्य राज्यों में पार्टी का पूरा ढांचा शरद यादव द्वारा निर्मित है तथा इन राज्यों के अध्यक्ष भी शरद यादव द्वारा नियुक्त लोग हैं। यही कारण है कि पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में अगर वोटिंग होगी तो शरद यादव के पक्ष का जीतना तय है। राजनीतिक गलियरों से मिल रहे संकेत भी बताते हैं कि शरद यादव द्वारा ऐसी कोशिशें शुरू कर दी गई हैं। वैसे यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले जब राजद का गठन हुआ था तब भी राजनीतिक हालात लगभग ऐसे ही थे। उस समय जनता दल मौजूद था और लालू प्रसाद ने शरद यादव को पहले तो जनता दल का कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था और बाद में जब दोनों के बीच क्लेश बढ़ा तब लालू प्रसाद को अपने लिए एक अलग पार्टी बनानी पड़ी थी। तब भी वैसे ही हालात थे जैसे कि आज हैं। राष्ट्रीय स्तर पर जनता की इकाईयों पर शरद यादव की स्वीकार्यता थी। आज के संदर्भ में यदि बात करें तो शरद यादव जनता दल यूनाईटेड की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों के साथ मिलकर नीतीश कुमार को बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं। अतीत का ही फिर से आकलन करें तो समाजवादी विचाराधारा वाली पार्टियों में इस तरह के फेरबदल का लंबा इतिहास रहा है। मसलन वर्ष 1989 में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जनता दल का गठन हुआ था। तब दलित-मजदूर किसान पार्टी, लोकदल(चौधरी चरण सिंह का गुट), चंद्रेशेखर की जनता पार्टी और विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन मोर्चा इसमें शामिल था। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन यह एकता भी बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी। आरक्षण के सवाल पर मुलायम सिंह यादव जनता दल से अलग हो गये। हालांकि इसका खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ा और राजनीतिक रूप से काफी कमजोर हो गये। बाद में कांशीराम के साथ ने उन्हें राजनीतिक संजीवनी दी। उधर बिहार में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद का साथ छोड़कर जनता दल परिवार की एकता को तोड़ दिया था। बाद में इसने राष्ट्रीय स्वरूप तब धारण किया जब नीतीश कुमार, जार्ज फर्नांडीस, चंद्रजीत यादव, रवि राय व मो युनूस सहित कुल 14 बड़े नेताओं ने समता पार्टी के नाम से नयी पार्टी बनायी। तब रामविलास पासवान, शरद यादव और लालू प्रसाद जनता दल में ही रहे। लेकिन 1997 आते-आते जनता दल परिवार पूरी तरह बिखर गया। वहीं समता पार्टी भी एक न रह सकी। हालत यह हो गयी कि इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए जार्ज फर्नांडीस और शरद यादव के बीच मतदान कराना पड़ा। इसमें जीत शरद यादव को मिली थी वह भी तब जबकि शरद यादव राजनीति में पूरे दमखम के साथ सक्रिय थे। वर्तमान में जिस तरह से बिहार की राजनीति में भूचाल आया हुआ है, इस कयासबाजी को निराधार नहीं कहा जा सकता है। स्वयं शरद यादव ने भी नीतीश कुमार की सार्वजनिक तौर पर आलोचना कर इस कयासबाजी को आधार दिया है। बीते 7 अगस्त को दिल्ली के कंस्टीच्यूशन क्लब सभागार में राष्ट्रीय ओबीसी महासंघ के तत्वावधान में आयोजित दूसरे राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए उन्होंने साफ कहा था कि वे संसद और संसद के बाहर भी नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों का विरोध करते रहेंगे। यहां तक कि उन्होंने तब नीतीश कुमार का नाम लिये बगैर कहा था कि यदि किसी में हिम्मत है तो उन्हें पार्टी से निकाल दे। लेकिन वे देश में मानवता को बांटने वाली ताकतों के सामने नहीं घुटने नहीं टेकेंगे। गुरूवार को अपने इसी तेवर शरद यादव तब नजर आये जब वह अपने तीन दिवसीय जनता से संवाद कार्यक्रम को लेकर पटना पहुंचे। एयरपोर्ट पर पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने साफ लहजों में नीतीश कुमार की इसलिए आलोचना की कि बिहार की जनता ने महागठबंधन को पांच साल के लिए जनादेश दिया था। भाजपा के साथ मिलकर रातोंरात सरकार बनाकर नीतीश कुमार ने बिहार की 11 करोड़ जनता के साथ विश्वासघात किया है। वहीं पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी ट्वीट कर जनता दल यूनाईटेड के भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया कि किसी भी पार्टी पर अधिकार उसका होता है जो पार्टी की स्थापना करता है न कि उसका जो बाद में छल-प्रपंच से पार्टी पर कब्जा करता है। जाहिर तौर पर यह कहकर तेजस्वी ने नीतीश कुमार के उनके घर पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। बहरहाल नयी सरकार के गठन के बाद राजनीतिक उठापटक का नया दौर शुरू हो गया है। शरद यादव के खुले विद्रोह का असर कितना प्रभावकारी है, इसका अनुमान नीतीश कुमार और उनके नये सहयोगी दल भाजपा को लग चुका है जब तमाम साम, दाम, दंड, अर्थ और भेद आदि तिकड़मों के बावजूद भाजपा कांग्रेस के अहमद पटेल को हराने में नाकामयाब रही। केरल से जदयू के राज्यसभा सांसद पहले ही नीतीश कुमार का विरोध कर चुके हैं। अब अगले कड़ी की कयासबाजी यह भी है कि शरद यादव समर्थक जदयू के विधायक जल्द ही पाला बदल कर बिहार में नये सरकार के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकते हैं। यह कयासबाजी भी निराधार नहीं है। प्रमाण राजद प्रमुख लालू प्रसाद के वे बयान हैं जिसमें उन्होंने शरद यादव के साथ होने की बात कही थी। इसके अलावा शरद यादव के पास नीतीश कुमार से बदला लेने का मौका भी है। अप्रैल 2016 में नीतीश कुमार ने शरद यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटाकर खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया था।
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