पितरों की संतुष्टि हेतु श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म ही श्राद्ध है - पं. मोहनलाल
शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘श्रद्धया पितृन् उद्यिष्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम’’ अर्थात श्रद्धापूर्वक पितरों की संतुष्टि हेतु जो कर्म किया जाता है वही श्राद्ध है। इसका भावार्थ यह कि श्राद्धकर्म में सर्वप्रमुख श्रद्धा को ही प्रधानता दी गई है। श्रद्धा के सामने समस्त विधि-विधान गौण मात्र रह जाते है।
पितृपक्ष की महत्ता की जानकारी देते हुए माँ शारदा की पवित्र धार्मिक नगरी मैहर के प्रख्यात वास्तु एवं ज्योतिर्विद पं. मोहनलाल द्विवेदी ने बताया कि भारतीय ज्योतिष की गणनाओं के आधार पर इस वर्ष 06 सितम्बर भाद्रपद पूर्णिमा से 20 सितम्बर अष्विन कृष्णपक्ष अमावष्या तक की 15 दिवसीय अवधि श्राद्धपक्ष के रूप में पितृगणों हेतु समर्पित है। अष्विन कृष्णपक्ष में पंचमी तिथि का क्षय होने से पितृपक्ष 15 दिवसीय है। इस अवधि में ज्ञात अज्ञात समस्त पितरों की संतुष्टि हेतु श्राद्ध कर्म किया जाना चाहिये। यद्यपि श्रद्धा का विशेष स्थान होता है। किंतु अन्य धार्मिक कृत्यो के समान इसे भी पूर्ण विधिपूर्वक करना चाहिये। पूर्णिमा को मृत्यु प्राप्त मनुष्य का श्राद्ध भाद्रपद षुक्ल पूर्णिमा तदानुसार दिनांक 06 सितम्बर बुधवार को करने का विधान है।
शास्त्र मतानुसार माता-पिता आदि के निर्मित उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्नादि अर्पित किया जाता है वह उनको प्राप्त होता है। अर्पित अन्नादि पदार्थ उनके अपने कर्मो के अनुसार देव-योनि प्राप्त हो तो अमृत रूप में, गंधर्व-योनी होने पर भोग्य रूप, में पशु-योनि प्राप्त पर तृण रूप, में सर्प-योनि प्राप्त होने पर वायु रूपमें दानव-योनि प्राप्त होने पर मांस रूप में प्रेत-योनि प्राप्त होने पर रूधिर रूप में एवं मनुष्य योनि प्राप्त होने पर अन्नादि रूप में प्राप्त होता है।
15 दिवसीय 16 श्राद्ध प्रारंभ
पं. द्विवेदी के अनुसार श्राद्धकर्म में श्राद्ध के कुछ विशेष नियम है। जिन मनुष्यों को तीन कन्याओं के बाद पुत्र की प्राप्ति हुई हो या जुडवा बच्चे पैदा हुए हो उन्हें श्राद्ध अमावस्या को,जवान मृतकों यथा-आत्महत्या, दुर्घटना, हत्या, सर्पदंश या हथियारों द्वारा मारे गये हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी को, जिन व्यक्तियों की नैसर्गिक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो उनका श्राद्ध केवल पितृपक्ष की त्रयोदशी या अमावस्यया को, सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध केवल नवमी को, सन्यासी पितृगणों का श्राद्ध द्वादषी को एवं नाना-नानी का श्राद्ध केवल अष्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को करने का विधान है।