मेरे मरने के बाद लोग सुनेंगे पर ये 'अष्टधातुई' काँग्रेसी नहीं
विंध्य के सफेद शेर कहे जाने वाले श्रीनिवास तिवारी की अंतिम यात्रा में जो शामिल हुआ या देखा उसकी जुबान में बाल ठाकरे की मौत पर उमड़ी भीड़ का वृतांत था। उत्तर भारत में तिवारीजी कमलापति त्रिपाठी के बाद दूसरे ऐसे बड़े नेता थे जिनके लिए पार्टीलाइन तोड़कर ऐसा जनसमुद्र उमड़ा। इत्तेफाक देखिए बालठाकरे भी खुद को मराठाकेशरी कहलाना पसंद करते थे जैसा कि तिवारीजी को चाहने वाले उन्हें विंध्यकेशरी कहते थे।
जीवन के उत्तरार्ध में राहुल गांधी की कांग्रेस ने तिवारीजी की भी वैसे ही गति की जैसे राजीव गांधी की काँग्रेस ने पंडित कमलापति त्रिपाठी की की थी। तिवारीजी ने कांग्रेस में रहते हुए इंदिरागाँधी को छोड़कर कभी भी बड़े नेताओं को नहीं भजा, भले ही वे तिवनी,अमहिया,भोपाल तक सिमट के रह गए हों। उन्होंने खुद को कभी बड़े नेताओं से उन्नीस नहीं माना, चाहे फोतेदार हों या धवन या कि जीतेंद्र प्रसाद। अलबत्ता वे लोगों की भीड़ को हमेशा नेताओं से बहुत बड़ा मानते थे। अपनी सभाओं के बाद वे अपने भाषण के बारे में नहीं बल्कि 'कितनी भीड़ रही होगी' पूछते थे। पत्रकारों से भी सिर्फ इसी बातपर ही गुस्सा होते थे जब कोई भीड़ की संख्या उनके आँकलन से कम लिख दे। काश वे अपनी अंतिम यात्रा में जुटी जनमेदिनी देख पाते।
एक बात को सभी ने नोट किया वो यह कि दिल्ली से कोई बड़ा नेता नहीं आया। तिवारीजी दिल्ली में रहकर राजनीति करने वाले नेताओं को 'अष्टधातु के देउता' कहते थे। काँग्रेस को डुबाने का श्रेय इन्हीं को देते थे यहाँ तक कि अपनी सभाओं में भी। वे कहते थे कि ये अष्टधातु वाले घाम में पिघलने और कार्यकर्ताओं के पसीने की बदबू से डरते हैं।
ये अच्छा हुआ कि दिल्ली से कोई अष्टधात्विक नेता नहीं आए। आते तो तिवारीजी की आत्मा निश्चित ही तड़प उठती। विवेक तन्खा को वे बेटे सा मानते थे इसलिए अजय मुश्रान को समधी मानते थे और उन्हें हमेशा कंजूस समधी कहते थे। तन्खाजी दिल्ली में रहते हुए अभी अष्टधात्विक नहीं हुए हैं। वे वाकय आत्मिक रूपसे तिवारीजी से जुड़े थे इसलिए आए।
तिवारीजी स्वभाव और राजनीति से खाँटी थे। विपक्ष को बख्शने का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन उसदिन सभी ने देखा कि समूची भाजपा,समूची बसपा और अन्य दलों के लोग उनके अंतिम संस्कार में उमड़ पड़े। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग आमतौर पर ऐसे कर्मकांडों से खुद को दूर रखते हैं लेकिन तिवारीजी की अंतिम यात्रा में विभाग प्रचारक,कार्यवाह,विभिन्न शाखाओं, प्रशाखाओं और अनुषांगिक संगठनों के पदाधिकारी व कार्यकर्ता पूरे वक्त रहे।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ऐसे संवेदनशील मामलों में कोई शानी नहीं। वे श्रद्धांजलि देने पहुँचे और तिवारीजी के परिजनों व स्वजनों से कम विह्वल नहीं दिखे। मंत्री राजेन्द्र शुक्ल को निधन की खबर गोवा में लगी। वे पाँच हवाई अड्डे नापते हुए बनारस होते हुए सड़कमार्ग से रीवा पहुँचे, तिवारीजी के पार्थिव शरीर आने के पहले।
यह वृतांत बताना इसलिये जरूरी और मजबूरी है ताकि लोग यह भी जान लें कि जिसदिन निधन हुआ उसदिन राहुलगाँधी के एक रत्न मध्यप्रदेश के प्रभारी कांग्रेस नेता दीपक बावरिया भोपाल में थे और बैठकें ले रहे थे। यह भी संभव है कि दीपक बावरिया श्रीनिवास तिवारी नाम के कोई काँग्रेसी थे जानते ही न हों। अलबत्ता अजयसिंह राहुल, अरुण यादव थे और वे इसलिये कि दोनों के पिताजी तिवारीजी के समकालीन व मित्र थे, ये लोग खट्टामीठा रिश्ता बचपन से ही देखते आए हैं।
कांग्रेस के किसी बड़े नेता ने सरकार से यह तक भी आग्रह नहीं किया कि तिवारीजी का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ होना चाहिए। उनका पार्थिवशरीर भी तिरंगे में लपेटे जाने का हकदार है। वे लोकतंत्र के पहले चुनावी महायज्ञ के आराधक विधायक हैं। दस साल प्रदेश के विधानसभाध्यक्ष रहे। भले ही सर्टीफिकेट न लिया हो पर सन् 42 के आंदोलन में डंडा खाने और जेल जाने के अगुआ छात्र नेता व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। खुदा न खाश्ता प्रदेश सरकार यदि राजकीय सम्मान की
पहल करती भी तो यही अष्टधात्विक काँग्रेसी यह आरोप लगाने से न चूकते की भाजपा भावनाओं की राजनीति करती है। वैसे मेरा मानना है कि तमाम बातों से परे प्रदेश सरकार को श्रीतिवारी को राजकीय सम्मान देना चाहिए था। जैसा कि काँग्रेस सरकार ने यमुना प्रसाद शास्त्री को दिया था।
तिवारीजी की अंतिमयात्रा एक प्रतिबद्ध राजनीतिक शैली के युग की विसर्जन यात्रा था। उस युग की जहाँ रिश्तों का मोल था। विपक्ष विरोधी नहीं था। लोकतंत्र पर विश्वास और मर्यादाओं की चिंता थी। जहाँ सदन में चीख से नहीं सीख से बातें आगे बढ़ती थीं।
तिवारी जी को विपक्ष ने जितना निशाने पर नहीं रखा उससे ज्यादा वे अपनी पार्टी के लोगों के षड़यंत्र के शिकार होते आए। कांग्रेस में वे इंदिराजी के कहने पर आए थे। चंदौली में सोशलिस्ट पार्टी के कांग्रेस में विलय के सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की थी। उन्होंने इंदिराजी को वचन दिया था कि हर विपरीत स्थिति में वे कांग्रेस का साथ देंगे और दिया भी।
आपातकाल के बाद जहाँ लगभग नब्बे फीसदी समाजवादी कांग्रेस छोड़कर जनतापार्टी में शामिल हो गए वहीं तिवारीजी अपने मुट्ठीभर साथियों को लेकर काँग्रेस में ही डटे रहे। 77 के विधानसभा चुनाव में काँग्रेस का जहाँ पूरे प्रदेश से सफाया हो गया लहीं विंध्य में आकर जनता लहर थम सी गई, इसके पीछे कहीं न कहीं तिवारीजी और उनका प्रभाव था। 80 में वे प्रदेश की काँग्रेस सरकार में मंत्री बने लेकिन जल्दी ही षड़यंत्र के शिकार हो गए उन्हें मंत्रीपद से इस्तीफा देना पड़ा। वह दौर संजयगाँधी के उभार और दखल का था इंदिराजी भी कोई मदद नहीं कर पाईं। पर इन स्थितियों में भी तिवारी न कभी झुके न टूटे यहाँ तक कि 85 में विधानसभा की टिकट काट दिये जाने के बावजूद भी।
यह तिवारीजी के लिए बड़ा मौका था कि वे विंध्य स्तर की ही कोई क्षेत्रीय पार्टी गठित कर सकते थे जैसा कि बाद में माधवराव सिंधिया ने विकास कांग्रेस गठित किया, अर्जुन सिंह ने तिवारी कांग्रेस बनाई, विद्याचरण शुक्ल ने कई पार्टियाँ बदलीं और अपनी पार्टी बनाई। श्रीनिवास तिवारी की यह प्रतिबद्धता थी की कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा उसी में रहकर जीवन पर्यंत अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
काँग्रेस के लोग जानते हैं कि 1993 में तिवारीजी दिग्विजय की पसंद नहीं थे इसलिए उनकी कैबिनेट के सदस्य नहीं बनाए गए। सब जानते हैं कि दिग्विजय कहाँ से निर्देशित हो रहे थे। ये तो प्रधानमंत्री नरसिंहाराव का दखल था कि हारेदाँव उन्हें विधानसभाध्यक्ष बनाना पड़ा। दूसरी बार 1999 में भी बमुश्किल ही विधानसभाध्क्ष बन पाए। इसके लिए चार महीने इंतजार करना पड़ा और इस बीच जानबूझकर कई दावेदार कुदा दिए गए थे।
तिवारीजी दिग्विजय के लिए जरूरी नहीं मजबूरी थे। पहला कारण तो यह कि मुख्यमंत्री बनने के बाद दिग्विजय सिंह के विधानसभा का चुनाव में पेंच फँस गया था जिसे तिवारीजी ने विधानसभाध्यक्ष रहते हुए जोखिम लेकर सुलझाया। यहाँ तक कि हाईकोर्ट में हलफनामा भी देना पड़ा। दूसरे दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री रहते हुए अर्जुन सिंह की छाया से मुक्ति चाहते थे और वह तिवारीजी को साथ में लेकर ही संभव था।
तिवारीजी चाणक्य नहीं सहज विश्वासी मनुष्य थे वरना वे दिग्विजय सिंह को मुसीबतों के भँवर में देखकर खुद भी मुख्यमंत्री बनने की लाईन में लग जाते। वे ऐसा इसलिए भी कर सकते थे क्योंकि केंद्र में नरसिंहराव की अर्जुनसिंह से अदावत थी। तिवारीजी राव के विश्वासी थे जबकि दिग्विजय सिंह पर अर्जुन सिंह की गहरी छाप थी।
तिवारीजी पीछे से वार करने वाले नेता नहीं बल्कि सामने ताल ठोककर लड़ने वाले दिलेर थे। पार्टी के भीतर उन्होंने हर लड़ाई ताल ठोंककर ही लड़ी, जबकि उनपर मौके बेमौके पीछे से वार होते रहे। सन् 91 का वर्ष उनके लिए टर्निंग प्वाइंट था जब वे कांग्रेस से लोकसभा के उम्मीदवार बने। अर्जुन सिंह सतना से लड़ रहे थे। मतदान के एक दिन पहले रातोंरात ऐसा गुल खिला कि तिवारीजी कोई 10 हजार मतों से चुनाव हार गए। जबकि इस चुनाव में कांग्रेस पहली बार फौलादी एकता के साथ दिख रही थी। तिवारीजी के विश्वास के साथ 'गेम' हो गया वे लोकसभा नहीं पहुँच पाए। फर्ज करिए कि श्रनिवास तिवारी 91 में लोकसभा में होते तो मध्यप्रदेश की राजनीति कैसी होती और वह तब जब केंद्र में राव बनाम अर्जुनसिंह चरम पर रहा हो।
तिवारीजी सबकुछ थे पर चाणक्य तो हरगिज नहीं, वरना 90 में विधानसभा के उपाध्यक्ष का पद स्वीकार करने की बजाय विपक्ष में विधायक बनकर बैठना ज्यादा पसंद करते। जो शख्स चौबीस साल की उमर में विंध्यप्रदेश की विधानसभा में अपने कई रिकार्डतोड़ भाषणों के जरिए संसदीय दुनिया का ध्यान खींचा हो, वो जब अनुभव और उम्र की परिपक्वता के साथ विपक्ष में बैठता तो साक्षात आग का गोला ही साबित होता। सरकार की ऐसे धुर्रियां बिखेरता कि आगे जब भी कांग्रेस की सरकार बनती तो सभी की जुबान पर उसी का नाम होता। लेकिन ऐसा साजिशन नहीं होने दिया गया, तिवारीजी लालबत्ती के लोभ में फँस गए और नतीजा यह निकला कि जब सन् 93 में कांग्रेस की सरकार बनी तो उनको कैबिनेट में आने के लिए तरसना पड़ा।
तिवारीजी पर प्रहार पर प्रहार हुए। ये लड़ाई खूंखार भेंडियों और शेर के बीच जैसी थी। दूसरा कोई होता तो टूटकर बिखर जाता। पर ये तने रहे और तनने की वजह इनके नामपर जुटने वाली भीड़ थी जिसकी गिनती जानकर ही ये जोश से भर जाते थे। वे आखिरी तक इसी भीड़ को ही लोकतंत्र की बारूद मानते रहे।
तिवारीजी पर आखिरी और निर्णायक प्रहार 2003 के चुनाव में हुआ। ये प्रहार कोई विपक्ष का नहीं था और न ही तिवारी को धराशायी करना उस वक्त विपक्ष के बूते की बात थी। ये प्रहार भी पार्टी के भीतर से हुआ और सरसंधान करने वाले वही थे जिनपर तिवारीजी परम विश्वास करने लगे थे। तिवारीजी जबतक सचेत होते समय हाथ से निकल चुका था।
वाकया कुछ ये था-भोपाल के एक बड़े पत्रकार ने खबर दी कि तिवारीजी घेरे जा रहे हैं। यद्यपि वो पत्रकार तिवारीजी के शुभचिंतक नहीं थे। क्योंकि उनकी बिरादरी के एक बड़े पत्रकार को स्पीकर रहते हुए तिवारीजी ने विधानसभा की चारदीवारी से बाहर फिंकवा दिया था और ये लोग चिरबहिष्कार का निर्णय लिए हुए थे। वे बड़े पत्रकार जो आजकल दिल्ली के एक यशस्वी चैनल के निदेशक हैं मुझसे सारा किस्सा इसलिये बयान किया क्योंकि तिवारीजी का शिकार करने की जो योजना उनके सामने बन रही थी वह बहुत ही घृणित थी। तिवारी जी को जब इसकी सूचना दी गई कि कल से कलेक्टर आपके फोन नहीं उठाएगा। परसों वही आपके निर्वाचन क्षेत्र के वोटरों की शिकायत अपनी टीप के साथ चुनाव आयोग को भेज देगा, नरसों ऐसा पुलिस कप्तान आ चुका होगा जो आपके कार्यकर्ताओं को चुन-चुन के ठिकाने लगाएगा। पहले तो तिवारीजी को यकीन नहीं हुआ फिर सभी बातें समझ में आ गई। वे घिर चुके थे और उनका खेत होना तय था। इस विधानसभा चुनाव वो अच्छे से हारे।
इंदिराजी और कांग्रेस के प्रति प्रतिबद्धता को सोनिया गाँधी जानने लगीं थीं। दो बार ऐसे मौके आए जब तिवारीजी का राज्यपाल बनना तय था लेकिन ऐनवक्त पर उन्हीं परम विश्वासियों ने ऐसी भाँजी मारी कि टीवी में प्राथमिक खबर चलने के बाद भी आदेश रुक गया। बाद में वह उर्मिला सिंह और अजीज कुरैशी के नाम से निकला। आप समझ सकते हैं कि एक आदमी की जिद थी कि काँग्रेस को सीने में ही लिए मरना है वहीं उसीकी पार्टी के उन अष्टधातुओं का फितूर था कि हम यहाँ आपको चैन से जीने नहीं देंगे।
मौत के बाद तो सारे शिकवे, विरोध चिता के साथ स्वाहा हो जाते हैं। तिवारी जी ने न जाने कितने भाजपाइयों,बसपाइयों को अपने लोगों के कहने पर जेल भेजने के लिए पुलिस को फोन किया होगा। लेकिन वे सभी के सभी लोग उस दिन उनकी अंतिमयात्रा में सुबकते दिखे। भले ही दिल्ली के अष्टधातुई देवों को फुरसत नहीं मिली और न ही लोकलाज का ख्याल आया। लोहिया ने कहा था-लोग मुझे सुनेंगे मेरे मरने के बाद! मुझे नहीं लगता कि ये कांग्रेस कभी श्रीनिवास तिवारी की नसीहतों से सबक लेगी अलबत्ता जनस्मृतियों में वे स्थायी रूप से टँके रहेंगे।