क्या धुएं में उड़ रही है उज्ज्वला योजना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत तक, उज्ज्वला योजना के तहत लाखों परिवारों को निशुल्क एलपीजी कनेक्शन दिए जाने पर अपनी पीठ थपथपाते हैं। लोकसभा चुनावों के लिए उनकी उपलब्धियों की सूची में से एक उज्ज्वला योजना भी है। जिन गरीब परिवारों की रसोई से धुआं रहित स्वच्छ ईधन पर भोजन पकाने की व्यवस्था करने की कोशिश की गई, क्या वाकई उनकी रसोई में एलपीजी सिलेंडर से भोजन पक रहा है, या फिर वे महिलाएं अब भी मिट्टी के चूल्हे से निकलता धुआं अपनी सांसों में ले जाने को मजबूर हैं।
उज्ज्वला योजना के तहत एक बार गैस कनेक्शन देने के बाद क्या अधिकारियों ने ये जानने की कोशिश की कि वे परिवार अब एलपीजी सिलेंडर से ही चूल्हा जला रहे हैं। यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो इसकी वजह क्या है? क्योंकि जिम्मेदार अधिकारियों ने ये आंकड़े नहीं संभाले कि एक बार एलपीजी कनेक्शन देने के बाद सिलेंडर रिफिलिंग के लिए कितने लोग और कितनी समयावधि में आए।
ग्रामीण अंचलों में अब भी ऐसे कई परिवार हैं, जिनके घर में उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन तो पहुंचा, लेकिन रसोई में खाना लकड़ी या गोबर के कंडों से ही जलता है। इसके लिए इन परिवारों की माली हालत तो ज़िम्मेदार है ही, साथ ही ये भी कहा जा सकता है कि लोगों की सोच बदलने की भी जरूरत है। पौड़ी गांव में स्कूल टीचर निर्मला सुंद्रियाल बताती हैं कि हमारे पास एलपीजी गैस कनेक्शन तो है लेकिन हम अब भी लकड़ी के चूल्हे पर ही खाना बनाते हैं।
निर्मला बताती हैं कि सिर्फ उनके घर में नहीं बल्कि पूरे गांव में अब भी ज्यादातर लकड़ी के चूल्हे पर ही खाना पकाया जाता है। ऐसा क्यों? इस सवाल पर निर्मला कहती हैं कि कुछ दबाव परिवार के बुजुर्गों का है, कुछ आर्थिक स्थिति का और कुछ सोच का भी। वह कहती हैं कि गांव में लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं कि एक गैस सिलेंडर को एक ही महीने में खर्च कर दिया जाए। निर्मला के घर में चौदह किलो का एक सिलेंडर चार से पांच महीने चल जाता है।
निर्मला की बातों से पता चलता है कि आर्थिक अड़चन के साथ सामाजिक दिक्कत भी जुड़ी हुई है। वह कहती हैं कि गांव में ये बात अच्छी नहीं मानी जाती कि मुफ्त की लकड़ी होते हुए गैस के चूल्हे पर खाना पकाया जाए। जबकि जंगल से लकड़ी लाना बेहद श्रम का कार्य है। निर्मला भी पहले जंगल से लकड़ी लेने जाया करती थीं। लेकिन अब वे स्कूल में पढ़ाने लगी हैं, तो ये जिम्मेदारी उनकी सास जी ने उठा ली है। यानी परिवार का एक सदस्य अब भी जंगल से लकड़ी लाने का जिम्मा संभालता है।
परिवारों को उज्ज्वला योजना के तहत निशुल्क गैस कनेक्शन दिए गए हैं। उज्ज्वला योजना के तहत उत्तरकाशी में निशुल्क गैस कनेक्शन के लिए कार्य कर रहे इंडियन ऑयल कंपनी के डिस्ट्रिक्ट नोडल ऑफिसर अमित कुमार के मुताबिक, उत्तरकाशी में करीब 9,500 लोगों को उज्ज्वला एलपीजी कनेक्शन दिए गए हैं। उनके रिकॉर्ड्स के मुताबिक जिले में 95 फीसदी परिवारों के बाद एलपीजी गैस कनेक्शन है। जो लोग इस योजना के तहत छूट गए हैं, उन्हें भी कनेक्शन दिए जा रहे हैं।
इस सवाल पर कि इनमें से कितने लोगों ने सिलेंडर की रिफिलिंग कराई और कितने समय में कराई। आईओएल के अधिकारी अमित कुमार बताते हैं कि करीब 94 फीसदी लोग सिलेंडर की वापस रिफिल के लिए आए। जो छह प्रतिशत लोग एक बार सिलेंडर लेने के बाद दोबारा गैस भरवाने नहीं आए, उनसे बातचीत की कोशिश की जा रही है। उनके मुताबिक बरसात के मौसम में सिलेंडर की मांग ज्यादा होती है और सर्दियों में सबसे कम होती है। इंडियन ऑयल के नोडल ऑफिसर के मुताबिक कोई दो-तीन महीने में सिलेंडर रिफिलिंग के लिए आता है, तो कई ऐसे भी हैं जो चार-छह महीने के अंतराल पर रिफिलिंग के लिए आते हैं।
क्या गैस कनेक्शन होने के बावजूद लोग लकड़ी के चूल्हे पर खाना पका रहे हैं। आईओएल के अधिकारी अमित कुमार मानते हैं कि पहाड़ों में अब भी ज्यादातर घरों में लकड़ी या दूसरे अस्वच्छ ईधन पर चूल्हा जलाया जाता है। ठंड से बचने के भी लोग लकड़ी का चूल्हा जलाते हैं जिससे घर गर्म रहता है। फिर लकड़ी मुफ्त में मिल जाती है। गांवों में तकरीबन हर घर में पशु होते हैं। पशुओं के चारे के इंतज़ाम के लिए लोग जंगल जाते ही हैं, वहां से चूल्हा जलाने की लकड़ियां भी ले आते हैं। बरसात में गैस सिलेंडर की मांग इसलिए अधिक होती हैं क्योंकि तब लकड़ियां गीली होती हैं और चूल्हे पे खाना पकाना आसान नहीं होता।
उज्ज्वला योजना के तहत दिए गए गैस कनेक्शन में रिफिलिंग के लिए आने वाली महिलाओं की संख्या बेहद कम हैं। इसलिए राज्य में इस योजना के अस्तित्व पर ही संकट आ गया था। इससे निपटने के लिए इंडियन ऑयल ने पांच किलो के छोटे सिलेंडर भी देने का फैसला किया। जिसकी कीमत 140 रुपए की सब्सिडी पर प्रति सिलेंडर 328 रुपए रखी गई।
इंडियन ऑयल के अमित कुमार के मुताबिक पांच किलो के सिलेंडर तो उनके पास भरपूर हैं, लेकिन लोगों की इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। उनका मानना है कि बार-बार रिफीलिंग के लिए आना मुश्किल भरा है। लोगों में कुछ डर भी है कि एक बार पांच किलो का सिलेंडर ले लिया तो शायद 14 किलोवाला सिलेंडर दोबारा न मिले।
बस्ती में रहने वाली सरोज के पास भी एलपीजी कनेक्शन है। लेकिन उनके घर में भी लकड़ी का चूल्हा ही जलता है। नजदीकी ही जंगल से वे लकड़ियां चुन कर ले आते हैं, जो उन्हें मुफ्त में मिल जाती है। सरोज कहती हैं कि गैस सिलेंडर जरूरत के लिए रखा है लेकिन लकड़ी के चूल्हे पर खाना पकाना उनके लिए बजट के हिसाब से आसान पड़ता है। लकड़ी के चूल्हे के धुएं से सेहत पर हानिकारक असर पड़ता है, इस सवाल के जवाब में सरोज मुस्कुरा भर देती हैं। वह कहती हैं कि हमारी पूरी बस्ती में ही घर-घर मिट्टी के चूल्हे बने हैं। औरतें सब काम निपटाकर शाम को जंगल से लकड़ियां बीनकर ले आती हैं। ये स्थिति राजधानी देहरादून की है।
उज्ज्वला योजना की नोडल ऑफिसर स्वाति कहती हैं कि उनकी टीम ग्रामीण क्षेत्रों में समय-समय पर कार्यक्रम करती है। लोगों को स्वच्छ ईंधन इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करती है। साथ ही लकड़ी या उपले से खाना पकाने पर सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में भी बताया जाता है। लेकिन गांवों की सामाजिक संरचना पर इसका असर पड़ता नहीं दिख रहा है। उज्ज्वला योजना के प्रचार में बताया गया कि चूल्हे में जलनेवाली लकड़ी से एक घंटा जो धुआं निकलता है, वो चार सौ सिगरेट पीने के बराबर है। पहाड़ की औरतें अब भी वो धुआं अपनी सांसों में उतार रही हैं। गांवों में घर-घर से चूल्हे का धुआं उठ रहा है। पैसा और सोच दोनों ही उज्ज्वला योजना को धुएं में उड़ा रहे हैं।
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