बैंक में लोगों के जमा पैसे की गारंटी पर आएगा नया कानून, बोर्ड के फैसले को SC में भी चैलेंज नहीं किया जा सकेगा
नई दिल्ली.बैंक में डिपॉजिटर्स (पैसा जमा कराने वाला) का पैसा कितना सिक्योर रहेगा, इस पर विवाद चल रहा है। वजह है फाइनेंशियल रिजॉल्यूशन डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) बिल। यह डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीजीसी) एक्ट की जगह लेगा। कहा जा रहा है कि इससे बैंक में जमा करने वालों का पैसा वापस मिलने की गारंटी नहीं रहेगी। इंडस्ट्री ऑर्गनाइजेशन और बैंकर्स भी इसके खिलाफ हैं। हालांकि, प्राइम मिनिस्टर और फाइनेंस मिनिस्टर दोनों ही कह चुके हैं कि पैसा पूरी तरह सिक्योर है। बिल पर पार्लियामेंट कमेटी को विंटर सेशन में सिफारिशें देनीं थीं, लेकिन इसे बजट सेशन तक का वक्त दे दिया गया है।
बोर्ड के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी
- जानकारों के मुताबिक, फाइनेंशियल स्ट्रक्चर रिजर्व बैंक के बजाय सरकार के हाथों में आ जाएगा। इसमें स्पेशल बोर्ड बनाने का प्रोविजन है। इसके फैसले को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
- इसमें प्रेसिडेंट के अलावा आरबीआई, सेबी, इरडा, पीएफआरडीए और फाइनेंस मिनिस्ट्री के रिप्रजेंटेटिव, 3 फुल-टाइम और 2 इंडिपेंडेंट डायरेक्टर रहेंगे। यानी बोर्ड के 11 सदस्यों में से 7 को सरकार अप्वाइंट करेगी।
- कैबिनेट ने 14 जून को बिल को मंजूरी दी थी। मानसून सेशन में इसे लोकसभा में पेश किया गया। अभी यह संसद की ज्वाॅइंट कमेटी के पास है।
- कमेटी के एक मेंबर ने बताया कि बैंकर बिल को लेकर ज्यादा परेशान हैं। उन्हें लगता है कि इसके प्रोविजन्स से बैंक डूब जाएंगे। बैंक डूबने के कगार पर आता है तो उसे बचाने का मैकेनिज्म होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि बिल जी-20 के दबाव में नहीं लाया गया है।
विवाद की दो अहम वजहें
बिल में डिपॉजिट की गारंटी का जिक्र नहीं, इसलिए लोगों को है आशंका
- डीआईसीजीसी एक्ट में प्रावधान है कि बैंक में जितने भी पैसे हों, बैंक दिवालिया होने पर 1 लाख रु. मिलने की गारंटी है।
- एफआरडीआई बिल में कितनी रकम की गारंटी होगी, इस बात का जिक्र नहीं है। इसलिए लोगों को आशंका है कि यह रकम ज्यादा हो सकती है और कम भी।
बैंक को बचाने की जिम्मेदारी में जनरल डिपॉजिटर्स भी शामिल होंगे
- एफआरडीआई बिल के प्रावधानों के अनुसार अगर बैंक दिवालिया हुआ तो उसे संकट से निकालने की जिम्मेदारी में सामान्य डिपॉजिट करने वाले भी शामिल होंगे। उनके पैसे का इस्तेमाल बैंक को बचाने में किया जाएगा।
बिल की जरूरत क्यों पड़ी?
बैंकों की इन्सॉल्वेंसी का अलग नियम नहीं, सामान्य कंपनियों के नियम लागू
- मौजूदा कानूनों में बैंकों या दूसरी फाइनेंसियल कंपनियों के लिए इन्सॉल्वेंसी के अलग नियम नहीं हैं। कोई बड़ी रिटेल कंपनी दिवालिया हुई तो बैंकिंग सिस्टम या लोगों पर ज्यादा असर नहीं होगा। लेकिन बैंक दिवालिया हुआ तो डिपॉजिट करने वाले प्रभावित होंगे, बैंकिंग सिस्टम के लिए भी खतरा बढ़ेगा।
2008 के फाइनेंसियल क्राइसेस के बाद जी-20 में तय हुआ था बेल-इन का प्रावधान
- 2008 में अमेरिकी बैंक दिवालिया होने लगे तो 45 लाख करोड़ रु. का बेलआउट पैकेज देकर बचाया गया। इसी के बाद जी-20 के फाइनेंशियल स्टैबिलिटी बोर्ड ने सिफारिश की कि सभी मेंबर कंट्री बेल-इन का अरेंजमेंट करें।
प्रमुख देशों में भारत में सबसे कम है डिपॉजिट इंश्योरेंस
भारत 1 लाख रुपए ब्राजील 41 लाख रुपए फ्रांस, जर्मनी 70 लाख रुपए इंग्लैंड 72 लाख रुपए आॅस्ट्रेलिया 1.2 करोड़ रुपए अमेरिका 1.6 करोड़ रुपए सोर्स: एसबीआई रिसर्च
डूबने के डर से बैंक से पैसे निकाल रहे हैं लोग
- ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन के प्रेसिडेंट एसएस. सिसोदिया के मुताबिक, नए बिल से डिपॉजिटर्स के मन में बैंकों में जमा रकम डूबने का डर समा गया है। कई बैंक मैनेजरों ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि रोजाना दर्जनों लोग इस डर से पैसे निकाल रहे हैं।
- भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) से जुड़े नेशनल आॅर्गनाइजेशन ऑफ बैंक वर्कर्स (एनओबीडब्ल्यू) के वाइस प्रेसिडेंट अश्विनी राणा ने कहा कि बैंकों से मनी विदड्राअल को नहीं रोका गया तो बैंकों में अफरा-तफरी का माहौल बन जाएगा।
67% एफडी 1 लाख से कम की, छोटे डिपॉजिटर्स को दिक्कत नहीं
- बैंक डिपॉजिटर्स के 1 लाख रु. का बीमा रिजर्व बैंक की सब्सिडियरी डीआईसीजीसी के पास कराते है। हर कस्टमर के लिए सालाना 100 रु. देने पड़ते हैं। 67% एफडी 1 लाख रु. से कम की हैं। यानी बैंक फेल हुआ तो छोटे डिपॉजिटर्स इस इंश्योरेंंस की वजह से सेफ रहेंगे।
नए बिल के मुताबिक रिजॉल्यूशन कॉरपोरेशन क्या काम करेगा?
- यह बैंक और बीमा जैसी फाइनेंशियल कंपनियों के जोखिम की मॉनिटरिंग करेगा। बैंक बंद होने की -नौबत आती है तो उसका रिजॉल्यूशन प्लान बनाएगा।
बेल-इन प्रोविजन क्या है?
- फाइनेंसियल कंपनी दिवालिया होने की नौबत आई तो उसकी एसेट-लायबिलिटी किसी और को दी जा सकती है, दूसरी कंपनी में मर्जर हो सकता है या कंपनी खत्म भी की जा सकती है। एक और प्रोविजन है देनदारी की इंटरनल रिस्ट्रक्चरिंग का। इसी को बेल-इन कहते हैं।
बेल-आउट से कैसे अलग है बेल-इन?
- बेलआउट पैकेज में बाहर से पैसे देकर मदद की जाती है। यह टैक्सपेयर्स का पैसा होता है। बेल-इन में जमा करने वालों के पैसे का ही इस्तेमाल होता है।
बेल-इन में क्या किया जाएगा?
- दो बातें हो सकती हैं। बैंक की देनदारी खत्म की जा सकती है या उसकी देनदारी को कर्ज या इक्विटी में बदला जा सकता है।
इसे लेकर विवाद क्यों है?
- विवाद की वजह है प्राॅयरिटी। यह इस तरह है- डिपॉजिट इंश्योरेंस, सिक्योर्ड डिपॉजिटर्स, इम्प्लॉईज की सैलरी, अन-इन्श्योर्ड डिपॉजिट, अन-सिक्योर्ड डिपॉजिटर्स, सरकार का बकाया और शेयरहोल्डर। जमा करने वाले को शेयरहोल्डर बनाया तो वह पैसे लौटाने की प्रॉयरिटी में आखिर में होगा। हालांकि इसके लिए उसकी सहमति लेनी पड़ेगी।
अभी बेल-इन का प्रावधान नहीं है?
- नहीं। अभी बैंक फेल होने पर या तो उसका दूसरे बैंक में विलय होता है या बंद कर दिया जाता है।
किसी और देश में है ऐसा कानून?
- फाइनेंशियल क्राइसेस के बाद अमेरिका और यूरोप के इंग्लैंड और जर्मनी समेत कई देशों में इसका प्रावधान किया गया है।
अब तक कहीं बेल-इन लागू हुआ है?
- 2013 में साइप्रस में बेल-इन प्रावधान का इस्तेमाल किया गया था। तब जमाकर्ताओं को अपनी आधी रकम गंवानी पड़ी थी।
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