सुत कै प्रीति प्रतीत मीत की नृप ज्यो उर डरिए-संत मैथिलीशरण

367 By 7newsindia.in Sun, Sep 10th 2017 / 16:20:54 मध्य प्रदेश     

सीधी। मानस का तीसरा घाट कर्म की समस्या का समाधान देता है। यद्यपि ज्ञान, भक्ति, कर्म और दैन्य के चार रास्तो में किसी का आश्रय लेकर प्रभु की ओर पहुॅचता है। मानस के मूर्धन्य मनीषी पूज्य पाद रामकिंकर जी महाराज के सुयोग्य उत्तराधिकारी ऋषिकेश से पधारे संत मैथिलीशरण जी महाराज ने कहा कि श्री हनुमान जी महाराज के जीवन में जो कर्मयोग है वह फलाकंाक्षा और अहंकार से मुक्त है। आशक्ति से रहित कर्म ही व्यक्ति को बंधन से मुक्त करने में सहायक होता है। वे लंका की यात्रा में प्रलोभन और अहंकार से मुक्त रहकर सुरसा के समक्ष उसकी परीक्षा में उत्तीर्ण होते है। श्री हनुमान जी जितना बड़ा होना जानते है उतना ही छोटा बनने में कुशल है इसलिए बाधा बनकर आई हुई सुरसा के मुख मंे प्रवेश कर शीघ्र ही बाहर निकल आते है और दूना-चौगुना बढ़ने के चक्कर मंे नही पड़ते। जो निरंतर प्रतिस्पर्धा ही होड़ में बड़ा बनने के लिए बेचैन बने रहते वे प्रशंसा रूपी के सुरसा के ग्रास बन जाते हैं। भक्ति सीता की खोज के मार्ग में निंदा स्तुति के बाद प्रलोभनरूपी स्वर्ण के मैनाक का आगमन उन्हे विश्राम देने की लालच मे कर्म से विरक्त करना चाहता है। वे स्वर्ण के पहाड़ में विश्राम तो नही करते किन्तु लोभ के त्याग का प्रदर्शन नही करते बल्कि प्रदर्शन का त्याग करते है। हमें भी इस संसार में प्रलोभन का त्याग और उसका समर्थन समझने की आवश्यकता है। श्री हनुमान जी कीर्ति, यश या प्रलोभन को नही प्रभु को हद्य मे सदैव सभंालते रहते है। बार-बार रघुवीर सभारि जो अपने हदृय मे हर क्षण भगवान को सम्भारना सीख लेता है प्रभु उसकी रक्षा के लिए सदैव सचेष्ट रहते है। व्यक्ति को खतरा के समय में उतना खतरा नही बल्कि जितना सब ओर से निश्चिन्त हो जाने पर खतरा रहता हैं इसलिए प्रभु के प्रति भय बने रहने से मनुष्य सुरक्षित रहता है इसीलिए तुलसीदास जी भगवान से प्रीति और प्रतीत मागने के बाद भगवान से भय का वरदान मांगते है। सुत कै प्रीति प्रतीत मीत की नृप ज्यो उर डरिए ईश्वर के प्रति डर का होना व्यक्ति को सावधान करता है जो व्यक्ति ईश्वर से निडर हो जाता है वही पतन के गर्त में गिरता है। मानस में लक्ष्मण जी के जीवन में भी पग-पग पर भगवान के प्रति भय दिखाई देता है। प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाही कह कर इसी का संकेत करते है। कर्म में फलाशक्ति तथा कर्तापन का अहंकार व्यक्ति को ले डूबता है। कर्म करते हुए कर्तापन से जो बचकर प्रभु के निमित्त सदैव समर्पित रहता है वह फलाशक्ति से बच जाता है।  हनुमान जी लंका के मंदिरो में एक से दूसरे पर छलांग लगाते है तब विशालकाय दिखते हुए हल्कापन लिए रहते है इसलिए स्वंय सभंलते हुए सबको सभांल लेते है । देह विशाल परम हरू आई विशालता के साथ जिनके जीवन में हल्कापन बना रहता है वे ही प्रभु की सेवा कर पाते है कब छोटा और कब बड़ा बनना है जो इस रहस्य को जानता है वही सच्चा कर्मयोगी है। अर्निवचनीय रामकथा में नगर के प्रबुद्ध श्रोताओ से सत्संग का हाल छोटा पड़ने लगा है अतः भारी भीड़ को समाधि सुख देने वाले रामकथा में प्रोजेक्टर के जरिए विशाल भीड़ को लाभ देने की दृष्टि से कथा सर्व सुलभ करायी जाती है। सीधी नगर के सभी प्रबुद्ध कथा का परागपान कर रहे है। 

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